9-भारतवर्ष / ॐ ईश्वरी कविकन्या


9-भारतवर्ष
 - ॐ ईश्वरी कविकन्या
वह सब
कहाँ गए तो गए ?
जो एक दिन रोए थे
भाईचारा का चारा,
संबंधों की प्रगाढ़ता ने
मजबूत की थी उसकी जड़ें ।
फूलों से भरा था
प्रीति का पराग
दानों-दानों में
बांध रखा विश्वास ।
हाँ ... आज तो
खुद के अहंकार से
अस्त-व्यस्त मनुष्य ।
इतनी धूल होती है
इन छाती के अंदर
कौन खोजता है इस धूलभरी छाती को ?
ऐसे बदलता रहता है समय
जीवन के भीड़ में
सामने की तरफ दौड़ रहा
अकेले मनुष्य का
लंबे-लंबे पाँव
भूल जाता है ...
मिट्टी से माँ होने की महातप को
और माँ से मिट्टी होने की महानता को ।
हमारे लिए चारा भी क्या है ?
- भूगोल पढ़ रहे
स्कूल को हमारी
हम आँकते हैं,
तुम्हारे दुख भरे देह का नक्शा
आवेग से आधे फटे कागज ।

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