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49॰ अग्नि-कन्या / शुभश्री मिश्रा

49 ॰ अग्नि-कन्या                                     - शुभश्री मिश्रा   मैं नहीं वीभत्स पांचाली न पाषाण अहिल्या , न प्रताड़ित सीता न ग्राम - वधू की जलती चिता और न ही हाड़ - कंपाती शीत - रात या राजपथ की बलात्कृत निर्भया।   नहीं आवश्यकता मुझे द्वितीय पांडव की शपथ नहीं श्रीराम चरण - रज नहीं आवश्यकता गवाह या अदालत विलंबित न्याय या कठोर कानून निरीह आत्मा के छिन्न - भिन्न होने पर।   मैं अग्नि - कन्या , मैं अग्नि - कन्या लपलपाती लपटें मेरी रक्षा - कवच दशभुजा बनकर नाश करूंगी जंतु - पिपासा। द्वार - देश से विलुप्त होते संबंध , मूल्य - बोध आत्मीयता । फिर लौटूंगी अंतःकरण में बनकर जननी , भगिनी और जाया मैं अग्नि - कन्या मैं अग्नि - कन्या।  

48 – अनावृत्त-अंधकार / मूल :- निबासीनि साहु

48 – अनावृत्त - अंधकार मूल :- निबासीनि साहु          माँ , तुम स्रष्टा की  प्रथम सृष्टि तुम्हारे पास से लौट जाती है छल - कपट की छाया भी तुम हो  ममता की मेघ - मल्हार तुम्हारी चरण - रज , आशीर्वाद का भंडार हमारे जीवन - पथ में तुम हो बरगद की छाया तुम हो ममतामयी ,   करने को जगत - कल्याण जो नारी बनी सृष्टि का कारण सृष्टि - आलोक उसके लिए वर्जित विनाश कर उसे  जननी - जठर में फेंक किसी सुनसान रास्ते पर या बेच  किसी दलाल - हाथों में स्कूल - फीस न दे पाई ‘ कनकलता ’ कॉपी - पेन्सिल खरीद न पाई ‘ बनिता ’ सरकारी - वृति सुनीता तीन कलियां खिलने से पहले मुरझा गई अभाव - यातना से केरोसीन की आग में मन - आईने में इंद्रधनुषी - रंग लेकर मन की वीणा में भर सप्त - सुर मन में भर बेशुमार हिलोरें   नारी को क्या पता उसके ससुराल में बना हुआ दहेज का लाक्षागृह   खतम हो जाएंगे उसके सुनहरे सपने   यातना की आग में जन्म - नियंत्रण ओपरेसन होता साईकल - पंप से   धन्य - धन्य उस डाक्टर की वैज्ञानिक कारीगरी . मूल खत्म होने से नहीं बढ़ेगी   जन

47 – भूत-बीमारी / मूल:- महेश्वर साहु

                     47 – भूत-बीमारी                 मूल:- महेश्वर साहु एक दिन की घटना खाने - पीने का नहीं था ठिकाना रात को बारह बजे तालाब के किनारे से लौटते समय मैंने देखी एक प्रेतात्मा आपके लिए , भले हो झूठ , मगर मेरे लिए सत्य जो मैं कह रहा हूँ वह नहीं है केवल कहानी काशतंडी की तरह उसके धवल बाल उड़ रहे थे फर - फर पाँवों को खोलकर हाथ हिलाते पलीता के लिए आ रही थी दौड़कर मैं हो गया दुर्बल मन को कर सबल डर से सिमट कर   नीचे पड़ा एक पत्थर फेंका इस प्रकार जैसे नारियल का हुए दो फाल ।   जल जाए मेरा कपाल देखने से कोई भूत - प्रेत नहीं बट नाना जी मेरे मटककर चल रहे थे कमर झुका कटहल पेड़ के नीचे जा रहे थे करने पिशाव सारा गलत हो गया मेरा हिसाब ।   विगत कल रात की बात तिरंगा चौक में फिर से देखा मैंने एक प्रेतात्मा जगन्नाथ जी की तरह बिना हाथ सिर धड़ से अलग देह दिख रही थी काली - काली चारों तरफ उसके बुदा घास नाईट ड्यूटी खत्म करके लगता है कोयले के खान से निकला अभी उसके पास थे तीन कुत्ते मेरी तरफ

46 - मेमना / मूल :- आलोक महान्ती

                       46 - मेमना                                  मूल :- आलोक महान्ती मैंने आकाश की लालिमा चुराई अपनी मृत्यु देखने के लिए – चन्द्र ज्योत्स्ना को बांध कर लाया , मेरी समाधि पर दिया जलाने के लिए । पर - मैं चल रहा हूं मेरे शव को ढोते हुए मेमना के पीछे - पीछे । मैंने देखा – तुम्हें घर के सोफ़े पर – स्टील की फ्रेम में – अथवा एलबम में   – इच्छा हुई बांधने के लिए तुम्हारे भुजाओं में अभिमंत्रित ताबीज कहीं खो न जाओ इन अंधी गलियों में । देह का उत्ताप ! मन की शीतलता !! लेने को इच्छा हुई तुम्हारी देह से , तुम्हारे चेहरे के पसी ना सू ख जाता है तुम्हारा हृदय पसीज जाता है तुम्हारे आँखों की प्रति छवि ....... मेरे लिए दर्पण होती है , देखने के लिए मेरा रूप तुम्हारे अंदर !! मुड़ कर देखता तुम्हारे हाथों के पापुलियों में फटी एक किताब या किस नायिका के ऊपर पंक्ति से अपंक्ति अपंक्ति से पंक्ति लुका - छिपी जान - पहचान में , मैं गुम हो जाता तुम्हारे भावनाओं में ,