47 – भूत-बीमारी / मूल:- महेश्वर साहु


                     47 – भूत-बीमारी
                मूल:- महेश्वर साहु
एक दिन की घटना
खाने-पीने का नहीं था ठिकाना
रात को बारह बजे
तालाब के किनारे से लौटते समय
मैंने देखी एक प्रेतात्मा
आपके लिए, भले हो झूठ, मगर मेरे लिए सत्य
जो मैं कह रहा हूँ
वह नहीं है केवल कहानी
काशतंडी की तरह उसके धवल
बाल उड़ रहे थे फर-फर
पाँवों को खोलकर हाथ हिलाते
पलीता के लिए
आ रही थी दौड़कर
मैं हो गया दुर्बल
मन को कर सबल
डर से सिमट कर  
नीचे पड़ा एक पत्थर
फेंका इस प्रकार
जैसे नारियल का हुए दो फाल ।
 
जल जाए मेरा कपाल
देखने से कोई भूत-प्रेत नहीं
बट नाना जी मेरे मटककर
चल रहे थे कमर झुका
कटहल पेड़ के नीचे जा रहे थे करने पिशाव
सारा गलत हो गया मेरा हिसाब ।
  विगत कल रात की बात तिरंगा चौक में
फिर से देखा मैंने एक प्रेतात्मा
जगन्नाथ जी की तरह बिना हाथ
सिर धड़ से अलग
देह दिख रही थी काली-काली
चारों तरफ उसके बुदा घास
नाईट ड्यूटी खत्म करके लगता है
कोयले के खान से निकला अभी
उसके पास थे तीन कुत्ते
मेरी तरफ थोड़ी भी ध्यान दिए बगैर ।
 
भयाक्रांत हो मैं चिल्लाया
पसीने से होकर तर-बतर
अगर भूत होता तो
पीठ पीछे कच्चा चबा जाएगा
भारत माता की जय जय करते
रास्ते जाते सभी को बताया
कल रात भूत की घटना ।
 
मेरे बात को सब सच मानकर
हाथ में एक लाठी लेकर
दौड़ गए मेरे पीछे कितने नर नारी
चलो दिखाओ व भूत हमें;
तिरंगा चौक के रास्ते में जिसने डराया तुम्हें ।
 
देखने पर भूत-प्रेत नहीं
गांधीजी की एक प्रतिमूर्ति
रास्ते के किनारे धुंआ धूल से
दिख रहा उनका चेहरा मलिन
लापरवाही से कुष्ठ-रोगी समान
दिख रहा था उनका बदन
धन्य मेरा ये नयन !
 कुत्ते नहीं थे तीन बंदर थे
बैठकर कर रहे थे कीर्तन
परिस्थिति बहुत कठिन
जिसे जो मिला मुझे सुनाने लगे
एक सुनाया भद्र भाषण कहाँ से आए हो भाई ?
 
गंजे सिर को देखकर भी नहीं पहचान पाए तुम
परिवेश कुछ शांत होने पर
मन ही मन कुछ गुनगुनाने लगा
इस देश के महापुरुष कब से भूत-वेश धारण किया ?
जिंदा लोगों को पहचान नहीं पाने पर
रोज पत्थर जो फेंके
गांधीजी के जैसे मरे हुए लोग को पहचानना
बहुत जटिल बात है ये ।

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