46 - मेमना / मूल :- आलोक महान्ती
46 - मेमना
मूल :- आलोक महान्ती
मैंने आकाश की लालिमा चुराई
अपनी मृत्यु देखने
के लिए –
चन्द्र ज्योत्स्ना
को बांध कर लाया,
मेरी समाधि पर दिया
जलाने के लिए ।
पर-
मैं चल रहा हूं मेरे
शव को ढोते हुए
मेमना के पीछे-पीछे ।
मैंने देखा –
तुम्हें घर के सोफ़े पर –
स्टील की फ्रेम में –
अथवा एलबम में
–
इच्छा हुई बांधने के
लिए
तुम्हारे भुजाओं में
अभिमंत्रित ताबीज
कहीं खो न जाओ इन
अंधी गलियों में ।
देह का उत्ताप !
मन की शीतलता !!
लेने को इच्छा हुई
तुम्हारी देह से,
तुम्हारे चेहरे के
पसीना सूख जाता है
तुम्हारा हृदय पसीज
जाता है
तुम्हारे आँखों की
प्रति छवि.......
मेरे लिए दर्पण होती
है,
देखने के लिए मेरा
रूप
तुम्हारे अंदर !!
मुड़ कर देखता
तुम्हारे हाथों के पापुलियों में
फटी एक किताब या किस
नायिका के ऊपर
पंक्ति से अपंक्ति
अपंक्ति से पंक्ति
लुका-छिपी
जान-पहचान में, मैं गुम हो जाता
तुम्हारे भावनाओं
में,
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