45 - सेवा-निवृत्त / मूल :- गोपबंधु महारणा


45 - सेवा-निवृत्त  
                 मूल :- गोपबंधु महारणा
घर के बरामदे में पड़ी
लकड़ी की कुर्सी
अब मेरे लिए बहुत अंतरंग
मैं उसको ढूंढ रहा हूं
और वह मुझे ।
खुद के रक्त के रंग
उनकी आंतरिकता,
आत्मीयता,
सब फीकी पड़ गई
सेवानिवृत्त होने के बाद ।
वे टूटी-फूटी चप्पलें,पुराने जूते
अब मेरी जरूरत
पूरा कर रही है ।
उनकी कर्कश भाषा
आधुनिक वेशभूषा
आघात करती है मुझे
परंतु पूंछ हिलाते-हिलाते
मेरा पालतू कुत्ता मेरे पास
आकार लोटने लगता है
 
नौकरी जीवन की व्यस्तता
आंतरिकता
और नहीं सच में,
मेरी लगाया गुलमोहर पेड़
अब कितना बड़ा हो गया है
सच !
पर मैं उम्र के उत्तरार्द्ध में
किसे खोज रहा हूं
खुद भी नहीं जानता हूं
कौन अपना, कौन पराया
परख नहीं पाता हूं
मैं नहीं बदला हूं,बदले हैं दूसरे लोग
मेरे सेवा-निवृत्त के बाद ।

Comments

Popular posts from this blog

49॰ अग्नि-कन्या / शुभश्री मिश्रा

48 – अनावृत्त-अंधकार / मूल :- निबासीनि साहु

47 – भूत-बीमारी / मूल:- महेश्वर साहु