44 – रो रहा मेरा तालचेर / मूल :- देवानंद साहु
44 – रो रहा मेरा तालचेर
मूल
:- देवानंद साहु
रो रहा मेरा अंचल,रो रहा तालचेर
कौन समझेगा उसका दुख-दर्द
उसके जन-प्रतिनिधि,वीर-संतति
हो गए सब विमुख ।
तालचेरवासी हुए हर दिन दुखी
था अंग्रेजों का
शासन
राजवादी शासन असह्य
कषण
मिटे नहीं अभी तक
निशान ।
जब गांव में घूम कर प्रजा एकत्रित
सुयोग्य वीर संतान
विदेशी शासन भुवन से
हटाने का किया प्रण
।
अंग्रेज़ हटे देश से लेकर सारी संपति
सात समुद्र कर पार ।
पूंजीपति के हाथों
में देकर छत्र
छोड़ गए भारत मिट्टी
।
व्यक्तिगत पूंजी
बढ़ाने खातिर
सदा स्वार्थ में हुए
लीन
ऐसा स्वार्थ अगर
रखोगे जीवन में
कैसे बढ़ेगा जाति-मान ?
पूंजीपति दल लेकर सब-कुछ
गढ़ते शिल्प अनुष्ठान
शिल्पी आकर ठेकेदार
मिल
सदा किया शोषण ।
अंचल के भूगर्भ में
खनिज पदार्थ
थे कभी परिपूर्ण
पाकर गुप्त-धन करने लगे लुंठन
परिवेश किया क्षुर्ण-क्षुर्ण
।
थे कितने सुंदर नदी-तीर
पहाड़-पर्वतमाला
प्राकृतिक शोभा अति
लुभावनी
जन के मन हर्षित कर
रहा था ।
कुसुम,पलास आम के मंजरी की
खुशबू
सुशीतल समीर
पशु-पक्षी के आवाज सुनाई दे रही थी कान
संतोष से जी रहे थे
।
सुरम्य जंगल कर समतल
करने लगे शिल्प
स्थापन
शांत परिवेश हो गया
ध्वंस
संकटमय जीवन ।
शिल्प से निर्गत धुएं,धूल,वाष्प
से हुआ वायु प्रदूषण
कोयले की धूल और राख
से देह धूसरित
होने लगे रोग
आकर्षित ।
शिल्प से निर्गत दूषित सलिल
बनने लगी शहरी नालों
के स्रोत
नदी के जल में मिलकर
स्वच्छ जल हुआ दूषित
।
विषम हैजा,टाइफाइड,चेचक
अनेक रोग-व्याधि ने किया ग्रास
जल प्रदूषण वायु
प्रदूषण
जन-मन प्राण नाश ।
भूतल खनन कोयला उत्खनन
देश के लिए हुआ
सुंदर
कुएं तालाब जल-विहीन
घटने लगा जल स्तर ।
कारखानों के उत्सर्जन से
पैदा हुए एडिस मच्छर
मलेरिया की तरह
डेंगू महामारी
लोग भोगने लगे
दुर्दशा ।
जमीहरा शिल्प-चौतरा
नहीं पाकर
पूर्वस्थापन
रो रहा यह अंचल
रो रहा तालचेर
रो रहा उसका जमीहरा
।
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