41 - स्वाधीनता / मूल –सुशील कुमार प्रधान


               41 - स्वाधीनता
                मूल सुशील कुमार प्रधान
स्वाधीनता तुम बन गई अधीनता इस भारतवर्ष में
तीन रंगों से रंगी ओढ़नी छोटे-छोटे पावों में
धीरे-धीरे आई पंद्रह अगस्त नववधू बन ।
तुम्हारे पदचिह्न  पंजाब में या सौराष्ट्र में
समुद्र तट पर अथवा राजस्थान के गरम रेत पर
वीरांगना तुम थक गई आगे आते-आते
सभी आँधी तूफानों के समय ।
स्वतन्त्रता सुख लेकर सभी का मन मोह अपना बन
लक्ष्मी प्रतिमा तुमने,सिर ऊंचा किया दुनिया में
नाम रख
आज योग्य संतान बुद्धि-बल से वैज्ञानिक हो रहे है
फिर भी कटोरे लेकर घूम रहे भिखारी !
लुटेरा लूट लेते बोरे-बोरे चावल और कालाबाज़ारी ।
रास्ते के किनारे कमजोर भूखे बच्चे को देख
लगता फिर अकाल !
भूखे बच्चे के लिए नहीं मुट्ठी भर चावल
छटपटाते मर जाते राज-रास्ते के किनारे
हाय रे विधाता !क्या मिली सभी को आजादी !
नारी आज भी पीड़ित !
पेट के खातिर बेच देती निज-संतान
कोई नहीं समझने को उसका अंतर कोह
पोंछने उसके आंसुओं की दो बूंदें ।
यहाँ चल रहा नारी सशक्तिकरण !
भूखी प्यासी छटपटाती नारी का यहाँ होता बलात्कार
अयोग्य संतान तुम कर रहे हो ये लंपटता
दुहिता दोनों कुल की हितकारी, उसने ही जगत जीता ।
स्वाधीनता तुम्हारे आँखों में आँसू !
सब होकर भी तुम्हारे पास कुछ नहीं
श्रीहीन हो गई आज अयोग्य संतान
भाई भाई में मन मुटाव, फिर भी मेरा भारत महानकी देते दुहाई ।
कब जागेंगे ये लोग !समझेंगे स्वाधीनता का महत्त्व
पोछेंगे माँ के आँसू
माँ की छाती में दर्द नहीं, झर रहा स्नेह ।

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