40 – काला-पत्थर / मूल :- ए॰ एस॰ नलिन
40 – काला-पत्थर
मूल :- ए॰ एस॰ नलिन
मैं काला, मेरा तन भी काला,
काया काली, धुंआ काला,
और ये मेरा रंग भी
काला,
मुझे जो जाने उनमें
कुछ काला,
जो करता मेरा धंधा
उनमें भी कुछ काला,
ऐसे-तैसे जो करता अर्जन वह धन काला,
कहलाता धनवान वह
काला,
फिर छोड़े ना मेरा
पीछा,
चाहे हो जाए उसका
मुँह काला,
नाक कटे या सिर फूटे,
चाहे जाए वह जेल,
मुझ पर अपनी जान
लुटाता
छोड़े न वह काला खेल,
गोरे हो या हो काले
करता नहीं मैं भेद-विभेद,
जल-जलकर मैं देता शक्ति
मेरी शक्ति पहुंचे
देश-विदेश,
चाहे धनी हो या हो
निर्धन,
फैलाता शक्ति मैं जन-जन,
मेरी तुलना होती
हीरा से,
पर सब कहते हीरा
काला ।
पीछा नहीं छोड़ता
काला,
मेरा पूरा जीवन काला
अंत में हो जाता हूँ
धुंधला।
पर धुंधला होने से
पहले
चमका देता मैं
किस्मत सबकी,
भर देता मैं झोली
सबकी,
लोग न छोड़े अब मेरी
राख,
बनाए उससे ईंटें लाख
काली कोयल मीठे बोल,
कभी न छोड़े अपनी बोल,
डाल-डाल पर करती कू-कू,
कहती मैं हूं बड़ी
मतवाली
फिर मैं क्यों छोडू
अपना मोल,
रंग काला पर गुण
अनमोल ।
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