38 - उड़ते बादल / मूल ;- बिजयानंद प्रधान
38 - उड़ते बादल
मूल ;- बिजयानंद प्रधान
बादल, अरे बादल !
तुम उड़ते बादल
रुक जाओ, एक बार
बात सुनो थोड़ी
आकुल हृदय से
पुकार रहा हूँ मैं तुम्हें
अकेले-अकेले
दौड़े जा रहे तुम
वर्षा कहां
ले जा रहे हो, सच में ?
तालचेरवासी
त्राहि-त्राहि कर रहे हैं ।
पानी यहां नहीं है
आग लग रही है
कोयले की धुएं से
नहीं दिख रही है एक
भी दिशा
चारों तरफ खड्डे ही
खड्डे
मिट्टी के ढेर ही
ढेर
नहीं जा पा रहे हो
कहीं आत्मीयों से
मिलने
वृक्ष-लता सब शुष्क दिख रही
हैं
हमारा जीवन है उदास
।
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