36 - छापा कागज / मूल :- जदुमणी साहु
36 - छापा कागज
मूल :- जदुमणी साहु
तूने मुझे,अपनी इच्छा से काटकर, बांटकर
गरम कर छिन्न-भिन्न कर
तालु से तलवे तक
जलाकर
नष्ट-विनष्ट किया ।
तुम्हारे सुख
स्वच्छंद भोग-विलास के बोझ तले
मैंने उत्सर्ग किया
निर्विवाद अपने आपको
क्योंकि मैं एक पेड़
हूं ।
तुमने मुझे जड़ से
खोदा
कुचलकर,कर्षण,धर्षण किया
मेरे छाती पर
खड़े होकर, तुमने अपने दंभ को
उजागर किया –
दुख सोखते.
सब सहकर मैं नीरव
निश्चल,
तेरे सुख-स्वच्छंदता के लिए
क्योंकि मैं जी रहा
हूं चुपचाप
तेरे पांवों के नीचे
की माटी बनकर ।
कितनी बड़ी बात है सच
में,
नारी को शक्ति रूपी
ओढ़नी ओढ़ाकर
स्वर्ग तुल्य बनाकर ,
आदर्श अलंकार पहनाकर
‘माँ’
सम्बोधन करके
उच्च आसन पर बैठाकर
फिर भी !
पुराण,इतिहास के सारे व्याख्यान और उपाख्यान को
तुच्छ कर दहेज के
लाक्षागृह में जलाकर
राख़ बनाने में कौनसा
पुरुषत्व
सिर चढ़ाकर ?
पानी की तरह द्रवित होते सारे मूल्य-बोध
मानुष का महत्त्व
उसके छलकते आंसुओं
में तैरती
पुरुष की कपटी छबि,
सामने आता है असली
चेहरा ;
छापे कागज की तरह सब-कुछ
सहन करता है, सोख लेता है,शोक और आंसुओं को
क्योंकि वह है
एक नारी ।
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