30- भूख / करुणाकर बाई
30- भूख
- करुणाकर बाई
गरीब के पेट की भूख देखी हो, बाबू ?
कभी सुनी उसकी
चीत्कार ?
विकल में मनुष्य का
मांस मनुष्य खाता है
खुद के बेटे का करता
व्यापार ।
मिट्टी
का पुतला मिट्टी में कुचला जाता है
खोजता है थोड़ा सुख
आयुष बही पुकार रही
है
फिर भी खत्म नहीं हो
रहा है उसके दुख ।
घनी अंधेरी रात नहीं
डरा पा रही है
नींद नहीं तोड़ पा
रहा तूफान
रास्ते चलते-चलते शव के
ऊपर पड़ जाते हैं पांव
उसको भय दिखाती लाश ।
देखे हो क्या, बाबू नदी के उस पार
का दुख
गोपी मौसा का घर,
तीन अविवाहित
बेटियों का बोझ
जिनकी शादी नहीं कर
पाया वह ।
सनीआ भैया का दुख
कहने से बात खत्म नहीं होगी
पूरी तरह टूट गया है,
अस्थि-पंजर नजर आने लगा है
अकाल में वृद्ध हो
गया है,
गुरुबारी मौसी के आँसू नहीं सुख रहे है
बेटा बंधुआ मजदूरी
करने गया है
अनाहार यंत्रणा
मिल गई उसको
भूख से भींचकर ।
ईंट-भट्टे का मालिक अमानुष
उसका मन पशु से भी
ज्यादा
गाँव के गरीब
लड़कियों को काम देने के बहाने से
अपने शरीर का भूख
मिटा रहा ।
ईंट-भटे में जल जाता है सभी आशा-भरोसा
रह जाती है मुट्ठी भर राख़,
बेमौसमी आंधी-तूफान, सपनों को लूट
हाहाकार,भूख और उपवास ।
भूख रह जाती है गांव
की धूसर झोपड़ियों में
नहीं पहुंच पाती है
राजधानी में,
रह जाती है भूख गोपी
मौसा के घर में
सुनाई नहीं दे रही
है मंत्री के कान में ।
सनिआ भैया की तरह
अनेक भूखे
छिप जाते पहाड़-जंगलों में,
कितने कुंवारियों के
सपनें जल जाते हैं
हुत-हुत ईंट भट्टे की आग में ।
भारत वर्ष में मेरा
राज्य पहला
दरिद्र में नाम लिख
रहा है,
निर्लज्ज शासक कहते
हैं
सुशासन दे रहे हैं
देखो,भूख की ढिंढोरा सुनाई पड़ रहा है ।
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