29-वृद्धा / आलोक महापात्र

29-वृद्धा
                - आलोक महापात्र
फेंके हुए बासी फूलों में
रहती है किसकी नजर
रूपरंग सब चले गए इसलिए
नहीं होता है उसका आदर ।
अनावश्यक का नाम लेकर आज
पाई है कितनी यातना
कितने दुख पाएँ हैं उसने आज
कौन करेगी उसकी कल्पना ।
कितनी इच्छा से थोड़ा स्नेह के लिए
सभी को किया अपना
इस निष्ठुर दुनिया के अंदर
कोई नहीं हुआ उसका ।
कोई नहीं समझे उसके किए हुए
कोटि कोटि उपकार
सभी ने कहा जीवन में कुछ भी
दिया नहीं उसने हमको ।
उस फूल एक दिन इस दुनिया में
देखे थे कितने सपने
सपना तो उसका सच नहीं हुआ
खत्म हो गया उसका जीवन
खुश मत होना फेंक कर उसको
ऐसा एक दिन आएगा
तुमने जो किया उस फूल के साथ
वही कल तुम्हारे साथ घटेगा ।

Comments

Popular posts from this blog

49॰ अग्नि-कन्या / शुभश्री मिश्रा

48 – अनावृत्त-अंधकार / मूल :- निबासीनि साहु

47 – भूत-बीमारी / मूल:- महेश्वर साहु