26-माँ तुम अमृतमयी / -स्वर्णलता कर

26-माँ तुम अमृतमयी
  -स्वर्णलता कर
सावन के घोर घने अंधकार में
जीवन-पथ पर छोड़ चले तुम
आँखों में अनवरत आँसू
फिर कभी सींचे इस पिंड पर
हृदय के अर्गलि से अनर्गल वक्ष रुधिर से
झरता अमृत पीयूष
कितने दुख, कितने कष्ट, कितना फिर मान-अपमान
भ्रूक्षेप न करके जीने के लिए इस मरु-प्रांत में
भोगेंगे यंत्रणा फिर जर्जरित हृदय
जियो और जीने की क्षीण दुराशा
नियति का बारंबार क्रूर कराघात
यौवन यंत्रणा से कुलबुलाते प्राण
मातृत्व की पराकाष्ठा
कठोर परिश्रम का एकनिष्ठ व्रत से
एकादशी भी जिसे हिला नहीं पाई
माँ तुम अमृतेश्वरी
परोसी वात्सल्य ममता
भरपूर प्राण नव दिगंत की बेसुमार आशा
पुत्र कन्या सभी को अपना कर
हो गई तुम जगत जननी ।
खिल उठी कुसुम-सौरभ
आघ्राण काल से
कल आकर पुकार गया अमृत भवन में ।

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