18-मेघ- मानसी / -अरूप परिडा
18-मेघ-
मानसी
-अरूप
परिडा
वर्षा की आने से याद आ जाती है
पुराने दिनों के
बातें
तुमने दी प्यार करने
की
खत्म न होने वाली
नीरवता ।
आकाश आच्छादित है काले मेघों से
बगुले उड़ जाते हैं
लग रहा है सच में
पता न पाकर
चिट्ठी तुम्हारा लौट
जाए ।
पक्षी बनकर मेघ के
साथ एक दिन
उड़ जाऊं गगन में
आज मैं पत्थर बनकर
गा रही हूँ
झरनों के मन के गीत
।
मेघ आज बगीचे से
मेरे
तोड़ते जब हरा रंग
हर बारिश में देखती
रहूँगी तुम्हारे
मंद-मंद मुस्कराने का ढंग ।
आकाश से मेघ उतरते
आते
बादलों को सीढ़ी
बनाकर
नदी के किनारे बैठ
सुनेंगे
बादलों के पुराने रुदन स्वर ।
बादलों को देख कर
कवि की तरह
कविता गाते-गाते दौड़ेंगे
उन गीतों की स्वर-लहरी आकाश के वक्षस्थल पर
हार की तरह शोभा
पाएंगे ।
रूआँसे आकाश में
रास्ते से भटककर
काले बादल उड़ जाएंगे
लगता मानो प्रियतमा
मेरी
गांव को छोड़ कर कहीं जा रही हो ।
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