49॰ अग्नि-कन्या / शुभश्री मिश्रा
49 ॰ अग्नि-कन्या - शुभश्री मिश्रा मैं नहीं वीभत्स पांचाली न पाषाण अहिल्या , न प्रताड़ित सीता न ग्राम - वधू की जलती चिता और न ही हाड़ - कंपाती शीत - रात या राजपथ की बलात्कृत निर्भया। नहीं आवश्यकता मुझे द्वितीय पांडव की शपथ नहीं श्रीराम चरण - रज नहीं आवश्यकता गवाह या अदालत विलंबित न्याय या कठोर कानून निरीह आत्मा के छिन्न - भिन्न होने पर। मैं अग्नि - कन्या , मैं अग्नि - कन्या लपलपाती लपटें मेरी रक्षा - कवच दशभुजा बनकर नाश करूंगी जंतु - पिपासा। द्वार - देश से विलुप्त होते संबंध , मूल्य - बोध आत्मीयता । फिर लौटूंगी अंतःकरण में बनकर जननी , भगिनी और जाया मैं अग्नि - कन्या मैं अग्नि - कन्या।