33-द्रोण-उवाच / गुरु राऊतराय
33-द्रोण-उवाच
-गुरु राऊतराय
आओ ,यहाँ भी
हस्तिनापुर से
हस्तिनापुर,अकेले
चलते-चलते आओगे इतने रास्ते
उस दिन तुम्हें खाली
हाथों से
लौटा देने के बाद
दीमक लगे खोखले बांस
की तरह
जी रहा इतने काल से,काश किसी दिन
तेरे साथ हो जाएगी
मुलाक़ात,
पापा,क्या सोच रहे हो ?
क्यों लौटा दिया उस
दिन
यश-ख्याति नहीं है बेटा
सबसे बदनाम यह चार-अंगुल पेट
जानते हो,
आलिशापुर के रघु
मोहंती का बेटा
तेरे जैसे गुरु
ढूंढने गया आस्ट्रेलिया
काश,उनसे आगे चला जाएगा
सोचकर
कायर कौरवों छः इंच
अंगुली
उसके पेट में घुसा
दी छः बार
कल पार्सल होकर आया
उसका शव
प्रगति का आदर्श
बनकर
इस सभ्यता का चेहरा
हिंस्र,भयंकर ।
अब भी जातीय भेद का
लाक्षागृह
रुद्धश्वास मानवता
का रूप,विकृत नष्ट-भ्रष्ट ।
दारिद्रय,दादागिरी,दललों का
तुम्हारा भाग्य,
शिक्षा सभ्यता का
मर्यादित खोल में
स्वार्थी मनुष्य आज
नृशंस,बर्बर
चिरकाल से शिकार हुए
,हो रहे हो तुम लोग
मेरे जैसे कपटी
द्रोणों का अहंकार ।
ये तो चौड़े कपाल पर
हाथ रख कर
दे रहा हूँ आशीर्वाद, लक्ष्य पथ से न हटकर
आगे बढ़ते जाओ बच्चों,
नाना जाति के फूलों की महक से
सुगंधित होंगे तेरे
उदार परमायु
एक बार माफ कर दो
अगर
तेरे सर से मेरा हाथ
हटाने मात्र से
उड़ जाती हैं मेरी
प्राण-वायु ।
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