48 – अनावृत्त-अंधकार / मूल :- निबासीनि साहु

48 – अनावृत्त-अंधकार
मूल :- निबासीनि साहु
        माँ,
तुम स्रष्टा की  प्रथम सृष्टि
तुम्हारे पास से लौट जाती है
छल-कपट की छाया भी
तुम हो  ममता की मेघ-मल्हार
तुम्हारी चरण-रज, आशीर्वाद का भंडार
हमारे जीवन-पथ में तुम हो बरगद की छाया
तुम हो ममतामयी,  करने को जगत-कल्याण
जो नारी बनी सृष्टि का कारण
सृष्टि-आलोक उसके लिए वर्जित
विनाश कर उसे  जननी-जठर में
फेंक किसी सुनसान रास्ते पर
या बेच  किसी दलाल-हाथों में
स्कूल-फीस न दे पाई कनकलता
कॉपी-पेन्सिल खरीद न पाई बनिता
सरकारी-वृति सुनीता
तीन कलियां खिलने से पहले मुरझा गई
अभाव-यातना से केरोसीन की आग में
मन-आईने में इंद्रधनुषी-रंग लेकर
मन की वीणा में भर सप्त-सुर
मन में भर बेशुमार हिलोरें  
नारी को क्या पता उसके ससुराल में
बना हुआ दहेज का लाक्षागृह  
खतम हो जाएंगे उसके सुनहरे सपने  
यातना की आग में
जन्म-नियंत्रण ओपरेसन होता साईकल-पंप से  
धन्य-धन्य उस डाक्टर की वैज्ञानिक कारीगरी
.मूल खत्म होने से नहीं बढ़ेगी  जन-संख्या  
हर समस्याओं का स्थायी समाधान
जननी सभी माताओं का स्नेह लेकर
तुम और मैं अगर मिलकर बनाते एक दुनिया
होती नहीं नारी वहां पीड़ित
 कोई भी नहीं रहता कष्ट में
काम,क्रोध,लोभ, मोह,रुदन-क्रंदन  
और नहीं रहती नारी अनावृत्त-अंधकारमें
हंसती रहती पृथिवी फागुनी रंगों में ।  

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